शब्द ही है जो कभी कभी नज्में बनते है,
नज्में ही है जो कभी कभी कुछ याद दिला देती है,
यादें ही है जो उस वक़्त को ज़िंदा रखती है।
एक खुशनुमा बहार जैसा वो वक़्त,
एक ठंडी बौंछार जैसा वो वक़्त,
एक मीठे अमरुद जैसा वो वक़्त,
कभी आधा कच्चा लगता है,
कभी आधा पक्का।
सोच सोच कर मुस्कुराती तो हूँ मैं,
टीस सी भी उठती है पर कभी कभी कही।
जैसे सुबह सुबह ओंस से भीगी घांस पर चलने से
छींक आती है ना, पर मजा भी आता है,
जैसे बारिश में भीगने पर बाद में ठण्ड लगती है,
पर मन में सितार बजते है,
जैसे खट्टा आम खाने पर गला भारी सा लगता है,
पर नमक और आम नटखट सा बना देता है,
जैसे पेड़ पर चढ़ कर फल तोड़ने से गिरने का डर लगता है,
पर वो फल ज्यादा मीठा लगता है,
जैसे स्कूल में साथ पढ़ने वाले लड़के का नाम डायरी में लिखने से
हिचकिचाते तो है, पर लिखते भी है,
जैसे साइकिल तेज चला कर आँख चुरा कर उसी रास्ते से निकलते है
जहाँ से पापा मना करते है, पर निकलते तो है,
जैसे मम्मी बाजार जाती है तो पीछे से छुप छुप कर दोस्तों को
फ़ोन करते है, पर बातें खूब करते है,
जैसे भाई बहन को भला बुरा कह लड़ाई तो करते है, पर जल्दी
ही सुलह भी करते है,
जैसे अंकल के सिगरेट पीने पर मुँह तो बनाते है, पर आधी बुझी
सिगरेट को छत पर ले जा कर जलाते तो है,
जैसे रात के बारह बजे चाय पीने से संकोच करते है,
पर बिस्कुट डूबा कर पीते तो है,
जैसे पडोसी के बाग़ीचे से फल ना चुराने का दावा करते है,
पर पके पके फल ढूंढ कर स्वाद से खाते तो है,
जैसे रात में इधर उधर की आवाजों पर सकपकाते तो है,
पर डर ना लगने का दावा भी करते है,
जैसे अपनी पसंद के लड़के का फ़ोन आने पर
उसे पाँच-छः बार बजने देते है, पर मुस्कुराते तो है,
जैसे साड़ी पहन कर ना चल पाने का नाटक करते है,
पर अपने ऊपर इतराते तो है।
ऐसा ही था मेरा बचपन,
थोड़े डर, थोड़ी शरारत से भरपूर,
थोड़े आंसू, थोड़ी हँसी से थिरकता,
थोड़ी धूप, थोड़ी छाँव से खिलखिलाता,
थोड़ा सूखा सा और थोड़ा गीला सा,
ऐसा ही था मेरा बचपन!
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