मैं : तुम से पागल को मिल के कुछ यूँ लगता है सनम ; यूँ खुद से गुफ्तगू , हम यूँ ही कर रहे थे |
आप: खुद को पागल तो कह दिया तुमने यूँ ; पर कैसे बंया करे , कि तुम्हारी हर गुफ्तगू में हम शरीक थे|
मैं: क़ायल यूँ तुझ पे, ऐसे ही नही हैं सनम|
अभी आँखें खोली, तो नज़ारा क्या देखता हूँ? जो मैं था वो तुम निकले, ये ग़ज़ब कश्मकश है|
आप: ये कश्मकश नहीं, मैं और तुम है ।
ऐसा जुर्म ना करो, खुली से नहीं, बंद आँखों से देखो,
नया नहीं, बहोत पुराना ये वाक़या है,
तुम्हारी शख्सियत में मेरी परछाई,
और मेरी में तुम्हारी रहा करती है,
इसलिए तो ये सारा जमाना फब्तियां कसता है।
मैंने कई मर्तबा सोचा तुम्हे बताऊँ,
मुझे यूँ लगा लेकिन, की जैसे तुम्हे पता है।
मैं: जाने कब से पता है, मेरा मैं तेरे तू मे बसता है| कश्मकश कुछ ऐसी थी, हम खुद में मैं और तू जुदा कर रहे थे|
अब लगता है खुद में खुदा है, तो कश्मकश
कैसी?
आप: हम में खुदा है या खुदा में हम है,
किसको खबर है?
ऐ मेरे हमनशी, आ अब साथ चलें।
उस अंत तक या उस शुरुआत तक,
आ अब साथ चलें।
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